Shri Dharamrajeshwara Temple: जमीन के 60 फीट अंदर हैं महादेव का ऐतिहासिक मंदिर, भव्यता देख कर रह जाएंगे दंग

इसी फ़रवरी की बात हैं, जब गर्मी की आहट मध्य प्रदेश के राजधानी भोपाल में दस्तक दे रही थी। इसी महीने में हल्की ठंड हवा भरी मौसम ने मेरे मन को अपना ग़ुलाम बना दिया और कहीं बाहर जाने को कहने लगा लेकिन कहा जाए ये तय नहीं हो पा रहा था। और मेरा एक उसूल हैं कि पिता जी का पैसा घूमने-फिरने और ऐशों-आराम में खर्च नहीं करना हैं। लेकिन ये उसूल धरा का धरा रह गया जब मेरे मोबाइल पे मध्य प्रदेश का एक ऐतिहासिक महादेव मंदिर का रिल्स आया जो मुझे इतना व्याकुल कर दिया कि मैं खुद को कही जाने से रोक नहीं पा रहा था। लेकिन ये फ़रवरी की व्याकुलता अप्रैल में खत्म हुई। ऐसा क्यों और क्या हुआ इसके लिए आपको पूरा यात्रा वृत्तांत पढ़ना होगा….

फ़रवरी का महीना –

सेमेस्टर एग्जाम खत्म हुआ हैं भईया, कही चला जाए ?, यह सवाल मैने अपने रूममेट से कहा जिनको मैं भईया कहता था। ‘अभी मुझे घर जाना हैं। वहां से आने के बाद चला जाएगा’, भईया ने कहा। ये सुनने के बाद हमारी व्याकुलता चरम पर पहुंच गई, ‘ठीक हैं भईया, तब हम अकेले ही चले जाएंगे’। नहीं यार हमको भी घूमना हैं, अच्छा भोपाल के पास कहीं चलना हैं तो चलों? मेरे तरफ़ मजाकिया लहज़े में देखकर भईया ने कहा। मैं समझ गया भईया मेरी चुटकी ले रहें हैं, मैंने कहा, ‘ठीक हैं’। कुछ दिनों के बाद वो घर चले गए। मेरी तबियत ख़राब होने के कारण मुझे भी घर जाना पड़ा। जिस वजह से घूमने की मेरी सारी उत्साह खत्म हो गई।

तबियत ठीक होने में एक महीने लग गए। अप्रैल के 1 तारीख को अब मैं लखनऊ से भोपाल के लिए ट्रेन में बैठ गया और जैसे जैसे रेलगाड़ी भोपाल के तरफ बढ़ रहा था, वैसे वैसे ही घूमने की वो व्याकुलता फिर से बढ़ रही थी। बहरहाल, मैं भोपाल पहुंच गया। और भईया भी वापस आ चुके थे। फिर से अब वहीं सामान्य दिनचर्या चालू हो गई। एक दिन मैं बैठकर सोशल मीडिया पर रिल्स देख रहा था, तभी उसमें एक प्राचीन और ऐतिहासिक महादेव का मंदिर (श्री धर्मराजेश्वर मंदिर), श्यामगढ़, म.प्र. के बारे में बताने लगा। उसकी खासियत सुनकर, मैने बोला, ‘भईया इस मंदिर में चलते हैं। यह मंदिर सम्राट अशोक के समय में जमीन से 60 फीट नीचे बनाया गया था। चलिए चलते हैं, इस पर डॉक्यूमेंट्री भी बना लिया जाएगा।’ थोड़ी देर सोचने के बाद वो राज़ी हो गए।

shamgarh station

अप्रैल का महीना –

4अप्रैल को सुबह लगभग 10 बजे मैंने मंदिर का जिक्र किया और शाम तक हम लोग ट्रेन पकड़ने स्टेशन भी निकल गए। मंदिर जाने के लिए सिर्फ एक ही ट्रेन थी। हम लोग टिकट के लिए कतार में खड़े ही थे कि अनाउंस होने लगा कि श्यामगढ़ जाने वाली ट्रेन प्लेटफॉर्म नंबर एक से रवाना हो रही हैं। हम और भईया बिना टिकट लिए दौड़ लगा दिए और पुलिया तक पहुंचने पर दिखा कि सामने से ट्रेन निकल रही थी। शायद महादेव चाहते थे कि हम उनका दर्शन किसी भी हालत में करे, तभी ट्रेन अचानक से रुक गई। फिर हम लोग दुबारा दौड़ लगा कर ट्रेन के जनरल डिब्बे में घुसना चाह रहे थे पर उसमें सरसों भी गिराने की जगह नहीं थी। मैंने कहा, ‘भईया चलिए स्लीपर में चलते हैं’। टिकट नहीं हैं, पकड़े जाओगे…. टी.टी. जनरल में नहीं आएगा’, भईया ने सलाह देते हुए कहा l मैने कहा, ‘यहां पे तो पैर रखने की भी जगह नहीं हैं, चलिए स्लीपर में गेट पे खड़े रहेंगे और टी.टी आएगा तो बोल दिया जाएगा ट्रेन खुल दी थी इसलिए टिकट नहीं ले पाए।’ ट्रेन आवाज़ दे दी, मैंने कहा, ‘जल्दी बताइए, ट्रेन खुल दी।’ ‘बोले ठीक हैं चलो जल्दी’ हम लोग स्लीपर डिब्बे में चढ़ गए और गेट पर किनारे खड़े हो गए।

ट्रेन का स्टॉपेज बहुत कम था, इसलिए ट्रेन खूब रफ़्तार में चल रही थीं। रात को ठंडी हवाओं ने आंखों को सोने के लिए मजबूर कर रही थीं लेकिन दूसरे तरफ़ घूमने के उत्साह ने मुझे नींद नहीं आने दे रहा था। क्योंकि उस रात के एक एक पल को मैं अपने स्मृतियों में संजो के रखना चाहता था। पहाड़ों के बीच से या नदी को पार करते हुई ट्रेन एक अलग ही आनंद का अनुभव दे रही थी। रात की ये दृश्य दुनिया के असली आनंद से रूबरू करा रही थी। रात को तीन बजे हमलोग श्यामगढ़ स्टेशन पहुंच गए। मेरे मन में था कि अब महादेव का दर्शन करके ही कुछ खाएंगे। सुबह होने के इन्तज़ार में हमलोग थोड़ी देर स्टेशन पे बैठे रहे और सुबह होते ही मंदिर के लिए निकल लिए।

temple 2

रैपिडो-उबर नहीं चलता था, कोई ऑटो-रिक्शा नहीं था। लोगों से पूछने पर पता चला कि बस जाती हैं जो कि 9 बजे श्यामगढ़ बस स्टैंड पे आती हैं। 9:30 बजे बस आ गई। और हम दोनों गैर अंजाने रास्तों पर निकल गए। वहां पर विंड मिल और राजस्थानी संस्कृति देखने को मिली। बता दे कि राजस्थानी संस्कृति इसलिए क्योंकि यह स्थान राजस्थान-मध्य प्रदेश बॉर्डर के पास हैं। बस कंडक्टर ने अचानक से एक रास्ते पर बस रुकवाया और बोला मंदिर जाने का रास्ता यही हैं, जो अंदर की तरफ जा रहा था, जहां दूर दूर तक कुछ भी नहीं दिख रहा था।

कुछ दूर चलने के बाद एक बड़ा सा गेट दिखा जिस पर लिखा था, धर्मराजेश्वर मंदिर और बौद्ध गुफ़ा। भईया बोले, ‘आ गया तुम्हारा ऐतिहासिक मंदिर’। ये सुनकर मेरी चलने की गति और बढ़ गई। लगभग 500 मीटर चलने के बाद एक बोर्ड दिखा जिस पर लिखा था, ‘मंदिर – 3km’। भईया बोले, ‘अब हमसे नहीं चला जाएगा’। सच बताए तो इस चिलचिलाती धूप में चलने का मन तो मेरा भी नहीं था लेकिन मंदिर पहुंचने के उत्साह ने मेरा मनोबल बना कर रखा था। भईया को पास में मंदिर होने का सहानुभूति दिया और साहस बनाया और निकल पड़े। कोई साधन भी नहीं चल रहा था कि उसका सहारा लेकर या उससे चले जाए। काफ़ी जगह रुकते हुए हमलोग 12बजे तक पहुंच गए अपने गंतव्य श्री धर्मराजेश्वर मंदिर। वहां पहुंच कर ऐसा लगा कि हम कोई जंग जीत लिए। खैर, वहां पहुंच कर मंदिर की कलाकृतियां, मंदिर की बनावट देख कर मैं स्तब्ध और अचंभित रह गया कि ‘उस समय बिना अत्याधुनिक तकनीकी के बिना कोई ये कैसे बना सकता हैं?

temple 3

वहां पहुंच कर 60 फीट जमीन के नीचे मंदिर में हमलोग महादेव का दर्शन किए और पंडित जी द्वारा प्रसाद भी प्राप्त किया। वहां की शांति और वातावरण मुझे वहीं पूरी ज़िन्दगी बिताने पर मजबूर कर रही थी लेकिन सांसारिक कर्तव्य वहां से जाने का एकमात्र वज़ह बना। मंदिर से बाहर निकले तो बौद्ध की गुफाएं, और छोटे छोटे पहाड़ भी हमारे मनोरंजन और उत्साह में चार चांद लगा रही थी। हम लोगो ने घर से ले गये हुए खाना को खाया और पहाड़ पे बसें प्रकृति का आनंद लेने में डूब गए।

दो दिन की यह यात्रा भले ही छोटी रही हो, पर यादें जीवन भर साथ रहेंगी। मंदिर की वादियाँ, वहाँ की सादगी और चिलचिलाती धूप होते हुए भी गर्मियों में वो नरम हवाएं — सब कुछ आज भी मन को मोह लेती हैं।

– एक यात्रा व्रतांत्र

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