भारत में सहमति से यौन संबंध बनाने की कानूनी उम्र 18 साल है। अब इस उम्र को घटाकर 16 साल किए जाने की संभावना पर सुप्रीम कोर्ट (Age of Consent) में सुनवाई होने वाली है। एक पक्ष का मानना है कि इसे घटाने से कई टीनएजर्स को बेवजह कठोर कानूनों का सामना नहीं करना पड़ेगा, जबकि केंद्र सरकार का कहना है कि मौजूदा आयु सीमा बिल्कुल सही है और इसमें किसी तरह की छेड़छाड़ बच्चों के शोषण को बढ़ा सकती है। यही कारण है कि यह मुद्दा समाज, कानून और मनोविज्ञान—तीनों स्तरों पर गंभीर बहस का विषय बन गया है।
अंतरराष्ट्रीय अनुभव से सबक
एज ऑफ कंसेंट को लेकर भारत में उठ रही इस बहस के बीच फिलीपींस और जापान जैसे देशों का उदाहरण सामने रखा जा रहा है। फिलीपींस में लंबे समय तक यौन सहमति की उम्र सिर्फ 12 साल रही। 1930 से चला आ रहा यह कानून नाबालिगों के शोषण (Age of Consent) का बड़ा कारण बन गया। स्थिति यह थी कि 2020 तक हर दिन करीब 500 नाबालिग लड़कियां गर्भवती हो रही थीं और देश टीन-एज प्रेग्नेंसी का केंद्र बन गया था। अंतरराष्ट्रीय दबाव और महिला संगठनों के विरोध के बाद आखिरकार 2022 में सहमति की उम्र को 16 साल कर दिया गया।
जापान में भी यही स्थिति देखने को मिली। वहां सहमति की उम्र 13 साल तय थी। छोटे बच्चों का ऑनलाइन शोषण और यौन अपराध तेजी से बढ़े। 2020 में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुए और संयुक्त राष्ट्र ने भी दखल दिया। नतीजतन, जापान ने कानून बदलते हुए सहमति की उम्र 16 साल कर दी और दबाव या नशे की हालत में बने संबंधों को रेप की श्रेणी में शामिल किया।
भारत में क्यों उठी है यह बहस
भारत में 18 साल (Age of Consent) की उम्र तय होने के पीछे यह मान्यता है कि इस उम्र तक पहुंचने पर बच्चा शारीरिक और मानसिक रूप से पर्याप्त परिपक्व हो जाता है। लेकिन हाल के वर्षों में कई ऐसे मामले सामने आए, जहां टीनएजर्स आपसी सहमति से रिश्ते में थे, मगर कानूनी रूप से इसे रेप की श्रेणी में डाल दिया गया और लड़कों को कठोर सजा का सामना करना पड़ा। इसी आधार पर कुछ लोग मानते हैं कि उम्र घटाकर 16 साल करने से निर्दोष युवाओं को राहत मिलेगी।
विशेषज्ञों की राय और केंद्र की चिंता
हालांकि मनोविज्ञान विशेषज्ञों और केंद्र सरकार (Age of Consent) का मानना है कि 16 साल की उम्र अभी भी जोखिम भरी है। इस उम्र में बच्चों का मस्तिष्क पूरी तरह विकसित नहीं होता, खासकर प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स, जो फैसले लेने और भावनाओं को नियंत्रित करने का काम करता है। इसका मतलब है कि किशोर पूरी समझदारी से यौन संबंध के लिए सहमति देने में सक्षम नहीं होते। नतीजा यह हो सकता है कि वे गिल्ट, अवसाद या अस्वस्थ रिश्तों के शिकार हो जाएं। इसके अलावा, कम उम्र के बच्चों पर बड़े पार्टनर का दबाव भी पड़ सकता है, जिससे उनकी पढ़ाई और भविष्य पर गंभीर असर होता है।
आगे का रास्ता
सुप्रीम कोर्ट (Age of Consent) में होने वाली सुनवाई इस मामले को नई दिशा दे सकती है। जहां एक ओर टीनएजर्स को लेकर सहानुभूति जताई जा रही है, वहीं बच्चों की सुरक्षा और शोषण रोकने का पहलू और भी महत्वपूर्ण है। फिलीपींस और जापान जैसे देशों के अनुभव बताते हैं कि सहमति की उम्र घटाने से समाज में अपराध और शोषण का खतरा कई गुना बढ़ सकता है। ऐसे में भारत में एज ऑफ कंसेंट घटाना या बनाए रखना—यह सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि सामाजिक और नैतिक निर्णय भी होगा।