Shah Bano Case: बॉलीवुड की मशहूर एक्ट्रेस यामी गौतम फिर एक बार एक दमदार किरदार में नजर आने वाली हैं. इस बार वो एक ऐसे किरदार में दिखेंगी, जिसने 40 साल पहले देश के कानूनी और सामाजिक ताने-बाने को बदल दिया था. उनकी आने वाली फिल्म ‘हक’, मशहूर ‘शाहबानो बेगम’ की कहानी से प्रेरित है, जिनकी कानूनी लड़ाई को आज भी भारत में महिला अधिकारों और धर्मनिरपेक्षता के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण केस स्टडी माना जाता है. ये कहानी है एक तलाकशुदा महिला के हक की लड़ाई और कानून-धर्म के बीच के टकराव की.
जानें कौन थीं शाह बानो बेगम?
कहानी 1978 में शुरू हुई थी, जब 62 साल की एक बुजुर्ग मुस्लिम महिला को उनके पति ने घर से निकाल दिया था. उस महिला का नाम था शाह बानो बेगम, और उनके पति थे मोहम्मद अहमद खान, जो पेशे से एक जाने-माने वकील थे. 43 साल की शादीशुदा जिंदगी और पांच बच्चों के बाद, मोहम्मद अहमद खान ने शाह बानो को तलाक दे दिया.
63 की उम्र में अदालत पहुंचीं शाह बानो
तलाक के बाद, शाह बानो बेगम बेसहारा हो गईं. उनके पास खुद का गुजारा करने कोई साधन नहीं था और पूर्व पति ने उन्हें गुजारा भत्ता देने से इनकार कर दिया था. आखिरकार, शाह बानो ने अपने और अपने बच्चों के भरण-पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया. उन्होंने कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर (सीआरपीसी) की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ते यानी एलिमनी की मांग की, जो भारत के सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कोई भी हो. इस दौरान देश में सामान नागरिक संहिता न होने पर अफसोस जताया गया था.
निचली अदालतों से सुप्रीम कोर्ट तक की लड़ाई
शाह बानो की याचिका पर मोहम्मद अहमद खान ने दलील दी कि मुस्लिम पर्सनल लॉ के मुताबिक, तलाक के बाद एक मुस्लिम महिला को सिर्फ ‘इद्दत’ (तलाक के बाद तीन महीने और तेरह दिन) की अवधि के लिए ही गुजारा भत्ता दिया जा सकता है, जिसके बाद पति की कोई जिम्मेदारी नहीं रहती. लेकिन निचली अदालतों ने शाह बानो के हक में फैसला सुनाया. फिर मोहम्मद अहमद खान ने इन फैसलों को चुनौती दी और अंत में, यह मामला भारत की सबसे बड़ी अदालत यानी सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे तक भी जा पहुंचा.सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा ये केस सिर्फ शाह बानो और उनके पूर्व पति के बीच सीमित नहीं था, बल्कि ये भारत के धर्मनिरपेक्ष कानून और धार्मिक पर्सनल लॉ के बीच की लड़ाई बन गई थी.
1985 का वो ऐतिहासिक फैसला
23 अप्रैल 1985 को, सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया. जस्टिस चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने सर्वसम्मति से शाह बानो के पक्ष में फैसला दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 सभी नागरिकों पर लागू होती है, और एक पति का ये कर्तव्य है कि वो तलाक के बाद भी अपनी पूर्व पत्नी का भरण-पोषण करे, जब तक कि वो खुद अपना गुजारा करने में सक्षम न हो जाए. इस फैसले में अदालत ने एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी भी की. उन्होंने कहा कि ये समय है जब देश में एक समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) लागू होना चाहिए. इस फैसले को महिला अधिकारों के लिए एक बड़ी जीत के रूप में देखा गया.
राजनीतिक हंगामा और 1986 का कानून
सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद, पूरे देश में हंगामा खड़ा हो गया. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और रूढ़िवादी मुस्लिम संगठनों ने इस फैसले का पुरजोर विरोध किया. उन्होंने इसे शरीयत (इस्लामिक कानून) में सरकारी हस्तक्षेप बताया. इस दबाव के आगे झुकते हुए, सरकार ने 1986 में ‘मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार का संरक्षण) अधिनियम’ (Muslim Women (Protection of Rights on Divorce) Act, 1986) पारित कर दिया.
साल 1986 में पारित हुआ फैसला
‘मुस्लिम महिला अधिनियम’ का मुख्य उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटना था. इस कानून के तहत ये प्रावधान किया गया कि एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला को सिर्फ ‘इद्दत’ की अवधि के लिए ही गुजारा भत्ता मिलेगा. इसके बाद उसकी जिम्मेदारी उसके रिश्तेदारों या वक्फ बोर्ड की होगी. कइयों को मानना था कि ये कानून धार्मिक समूहों को खुश करने के लिए लाया गया था, और इससे महिला अधिकार कार्यकर्ताओं और सेक्युलर संघटना भारी निराश थे.
विरासत और आज भी जारी बहस
शाह बानो केस ने भारत के कानून और राजनीति पर एक अमिट छाप छोड़ी है. ये आज भी समान नागरिक संहिता (UCC) पर होने वाली हर बहस का केंद्रीय बिंदु है. 40 साल बाद, अब यामी गौतम इस किरदार को बड़े पर्दे पर किस तरह से पेश करती हैं? ये देखना दिलचस्प होगा.