ऑपरेशन सिंदूर के दौरान हमने देखा कि कैसे पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर (पीओजेके) को भारत से फिर जोड़ने की मांग उठने लगी थी. फिर इस मुद्दे को संसद में भी व्यापक रूप से उठाया गया. सामान्य रूप से इस विषय पर भारतीय जनता पार्टी हमेशा से मुखर रही है. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पीओजेके के भारत में अधिमिलन को लेकर लगातार अपनी बात रखते आए हैं. मगर आश्चर्य की बात यह है कि कांग्रेस पहली बार पीओजेके का मुद्दा उठा रही है.
दरअसल, यह बातें देवेश खंडेलवाल ने कहीं, जो बीते 15 सालों से लेखन और शोध कार्य से सक्रिय रूप से जुड़े हैं. उन्होंने बताया कि एक लम्बे समय तक कांग्रेस ने पीओजेके को कभी गंभीरता से नहीं लिया. दशकों तक यह कांग्रेस की प्राथमिकताओं में भी शामिल नहीं हुआ. ऑपरेशन सिंदूर के दौरान कांग्रेस ने पहली बार, भले ही केवल राजनीतिक स्तर पर सही, पीओजेके को लेकर सार्वजनिक तौर पर चर्चा शुरू की. किन्तु इस प्रक्रिया में कांग्रेस के नेता कुछ तथ्यों को स्पष्ट करना भूल गए अथवा जानबूझकर अनजान बने रहे.
पाकिस्तानी घुसपैठ को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ का रुख
वास्तव में, पीओजेके की जो वर्तमान स्थिति है वह कांग्रेस की पूर्ववर्ती नीतियों और लम्बे अंतराल तक साधी गई चुप्पी का परिणाम है. इसलिए पाकिस्तान के अवैध कब्जे वाले इस भारतीय भूभाग को फिर एकबार भारत में मिलाना पहले की तुलना में कहीं अधिक जटिल और सामरिक चुनौतियों से परिपूर्ण हो गया है. हम जानते हैं कि 1947 में जब पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर रियासत पर सशस्त्र हमला किया, तब भारत ने भी सैन्य प्रतिकार से उसका जवाब दिया.
भारतीय सेना ने अधिमिलन के तत्पश्चात पाकिस्तानी घुसपैठियों को पीछे धकेलना शुरू कर दिया था. परंतु उसी समय, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने गवर्नर-जनरल माउंटबेटन की सलाह पर पाकिस्तानी घुसपैठ को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ का रुख किया. जिसके बाद युद्धविराम की घोषणा की गयी, जिससे भारतीय सेना को पीछे रुकना पड़ा और पाकिस्तान की सेना के कब्जे वाला भूभाग पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर यानि पीओजेके बन गया.
पीओजेके पर भारत के दावे की स्थिति कमजोर
बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू को भी स्वयं आभास हुआ कि संयुक्त राष्ट्र संघ में अपील करना एक ऐतिहासिक भूल थी. मगर इससे सबक लेने के स्थानपर गलतियों की लम्बी श्रृंखला शुरू की गयी और अंत में पीओजेके पर भारत के दावे की स्थिति को कमजोर बना दिया गया. जब-जब कांग्रेस सत्ता में रही, तब-तब इस मुद्दे पर उसकी उदासीनता, और निर्णयहीनता उजागर होती रही. एक के बाद एक कूटनीतिक और सामरिक भूलें होती गईं, जिनका खामियाज़ा आज पूरा देश भुगत रहा है.
1957 में भारत के पास था बड़ा अवसर
साल 1957 में भारत के पास एक बड़ा अवसर था, जब मंगला बांध के निर्माण को लेकर मीरपुर और हवेली क्षेत्र में पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध जबर्दस्त जनविरोध फूट पड़ा. हालात इतने बिगड़ गए कि मार्शल लॉ थोप दिया और 5,000 से अधिक निर्दोष लोगों को गिरफ़्तार यातनाएं दी गईं. स्थिति भयावह हो गई, नागरिक भूख से मरने लगे, और पाकिस्तानी सेना से त्रस्त होकर सैकड़ों की संख्या में लोग पलायन कर भारत आने लगे. इस घटनाक्रम में एक नाम विशेष रूप से उभरा – सजदा बेगम, जो एक पाकिस्तानी पत्रकार की पत्नी थीं और जान बचाकर भारत आ पहुंचीं. उस समय उनकी कहानी अखबारों की सुर्खियां बनीं.
भारत सरकार ने गंवा दिया मौका
दुर्भाग्यवश, यह मौका भारत सरकार की एक कूटनीतिक विफलता के रूप में दर्ज हुआ. न तो तत्कालीन केंद्र सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मानवाधिकार उल्लंघनों के इस गंभीर प्रकरण को पर्याप्त रूप से उठाया, और न ही पाकिस्तान के अवैध कब्जे पर अपने वैधानिक दावे को दोहराने का कोई ठोस प्रयास किया. कुलमिलाकर, भारत सरकार ने उस ऐतिहासिक अवसर को बिना किसी रणनीतिक लाभ के गंवा दिया.
1970 में भी हुए विरोध-प्रदर्शन
पीओजेके में पाकिस्तान सरकार के विरुद्ध साल 1970 में भी व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए थे. तब पहली बार पाकिस्तानी समाचार-पत्रों ने उन प्रदर्शनों को खुलकर प्रकाशित दिया था. किंतु तब भी तत्कालीन भारत सरकार हस्तक्षेप करने में असफल रही और फिर एक महत्वपूर्ण अवसर हाथ से निकाल दिया. इसी बीच साल 1964 में खबर आई की पाकिस्तान ने बीजिंग तक सड़क निर्माण की योजना बनाई है. मुद्दा राज्यसभा में भी उठा, मगर तत्कालीन विदेश राज्य मंत्री दिनेश सिंह ने बताया कि यह विषय सरकार के ध्यान में है लेकिन हस्तक्षेप करने की हर संभावना से इनकार कर दिया.
चीन-पाकिस्तान के गठजोड़ पर हंगामा
साल 1983 में भी चीन-पाकिस्तान के इस गठजोड़ पर राज्यसभा में हंगामा मचा लेकिन तत्कालीन विदेश मंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने सिर्फ इतना कहा कि इससे देश की सुरक्षा पर गंभीर परिणाम होंगे, इसलिए हम इस मुद्दे पर नजर रख रहे हैं. साल 2010 में न्यूयॉर्क टाइम्स ने दावा किया था कि गिलगित-बाल्टिस्तान में 7-11 हजार चीनी सैनिक तैनात है. सामरिक रूप से चीन ने पीओजेके के कई हिस्सों में अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी है. मगर कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकारें अपने अलग-अलग कार्यकालों में निष्क्रिय ही रही. वर्तमान में यही, चीन-पाक आर्थिक गलियारा, भारत के लिए एक बड़ी मुसीबात बन गया है.
चीन-पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका पर चुप्पी
साल 1992 में, कांग्रेस सरकार के विदेश राज्य मंत्री आरएल भाटी ने राज्यसभा में अधिकारिक तौर पर बताया था कि पाकिस्तान ने अवैध रूप से लगभग 5,180 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र चीन को सौंप दिया है. यह समूचा इलाका पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर का हिस्सा था. फिर साल 2010 में चीन की साम्यवादी सरकार ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर को ‘नॉर्दर्न पाकिस्तान’ कहकर संबोधित किया था. इन मुद्दों पर भी कांग्रेस की तत्कालीन केंद्र सरकारों ने चीन और पाकिस्तान की संदिग्ध भूमिका पर चुप्पी साध ली और मुद्दे को अत्यधिक जटिल बना दिया.
यह तो केवल कुछ उदाहरण हैं, जबकि ऐसी घटनाओं की सूची कहीं अधिक लंबी है, जिनमें तत्कालीन भारत सरकार की नीतियों ने पाकिस्तान अधिकृत जम्मू-कश्मीर पर भारत के दावे को दुर्बल किया. यह स्थिति क्रमिक रूप से बिगड़ती चली गई. वास्तव में, इतिहास में कई ऐसे अवसर मिले थे जब परिस्थितियां भारत के पक्ष में जा सकती थीं, किंतु उन्हें या तो नजरअंदाज़ किया गया या वे निष्क्रियता के कारण हाथ से निकल गए.
कौन हैं देवेश खंडेलवाल?
देवेश खंडेलवाल बीते 15 वर्षों से लेखन एवं शोध कार्य से सक्रिय रूप से जुड़े हैं. उन्होंने डॉ. श्याम प्रसाद मुखर्जी शोध प्रतिष्ठान, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, एकात्म मानवदर्शन शोध एवं विकास प्रतिष्ठान, विचार विनिमय केंद्र, प्रसार भारती और तमाम प्रतिष्ठित संस्थानों के साथ शोध कार्य किया है. इसके अलावा, उन्होंने MyGov इंडिया में डिप्टी जनरल मैनेजर के रूप में भी अपनी सेवाएं प्रदान की हैं. देवेश खंडेलवाल ने महाराजा हरि सिंह और डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के ऊपर भी शोध आधारित दो पुस्तकों का लेखन लिया है.