20 साल बाद न्याय: हाई कोर्ट ने दिया अनुकंपा नियुक्ति का आदेश

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के इस फैसले से याचिकाकर्ता को 20 साल बाद ही सही न्याय मिला है। दरअसल याचिकाकर्ता बीते 20 साल से पुलिस विभाग के आला अफसरों के दफ्तर का चक्कर लगाकर थक गया था। हर एक जगह से निराशा ही हाथ लग रही थी।

ड्यूटी के दौरान मृत आरक्षक के बेटे ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए विभाग में आवेदन पेश किया था। विभाग के आला अफसरों ने उत्तराधिकार प्रमाण पत्र का ऐसा पेंच फंसाया कि बीते 20 साल से वह नौकरी के लिए पुलिस के आला अफसरों के दफ्तर का चक्कर काट रहा है। न्याय की गुहार लगाते हुए छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। कोर्ट ने विभागीय अफसरों के आदेश को रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को अनुकंपा नियुक्ति देने की प्रक्रिया प्रारंभ करने डीजीपी को निर्देश जारी किया है। कोर्ट ने अपने आदेश में कहा है कि, अनुकंपा नियुक्ति के लिए उत्तराधिकार प्रमाण पत्र मांगे जाने की आवश्यकता नहीं है।

छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के इस फैसले से याचिकाकर्ता को 20 साल बाद ही सही न्याय मिला है। दरअसल याचिकाकर्ता बीते 20 साल से पुलिस विभाग के आला अफसरों के दफ्तर का चक्कर लगाकर थक गया था। हर एक जगह से निराशा ही हाथ लग रही थी। अनुकंपा नियुक्ति देने से पहले विभाग को उत्तराधिकार प्रमाण पत्र की जरुरत थी। इसी एक पेंच के चलते याचिकाकर्ता को निराशा हाथ लग रही थी। मामले की सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने उत्तराधिकार प्रमाण पत्र पेश करने के संबंध में पुलिस विभाग द्वारा याचिकाकर्ता को जारी पत्र को निरस्त कर दिया है। कोर्ट ने डीजीपी व बिलासपुर एसपी को निर्देशित किया है कि, याचिकाकर्ता की अनुकंपा नियुक्ति के प्रकरण का निराकरण उत्तराधिकार प्रमाण पत्र के बिना नियमानुसार किया जाए।

क्या है मामला

छत्तीसगढ़ बिलासपुर के कपिल नगर सरकंडा निवासी सिकंदर खान ने अधिवक्ता अब्दुल वहाब खान के माध्यम से हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ता ने बताया था कि, उसके पिता स्व. शिवकुमार साहू पुलिस अधीक्षक कार्यालय बिलासपुर में आरक्षक के पद पर पदस्थ थे। सेवाकाल के दौरान 26 मार्च 2004 को उसकी मृत्यु हो गई थी। याचिकाकर्ता ने कोर्ट को बताया कि उसकी मां रजिया बेगम को मृतक की पत्नी होने के नाते परिवार पेंशन मिल रहा है। मृतक के खाते में जमा विभिन्न मदों की राशि के भुगतान के संबंध में उसने व मां रजिया बेगम व अन्य उत्तराधिकारियों ने उत्तराधिकार प्रमाण पत्र भी प्राप्त कर लिया था। याचिकाकर्ता ने अपनी याचिका में इस बात की भी जानकारी दी है कि अनुकंपा नियुक्ति मिलने के संबंध में रिश्तेदारों ने भी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई है। सभी ने अपनी सहमति भी दे दी है। इसके बाद भी विभाग द्वारा उससे उत्तराधिकार प्रमाण पत्र मांगा जा रहा है। प्रमाण पत्र पेश ना करने के कारण उसे अनुकंपा नियुक्ति से वंचित किया जा रहा है। मामले की सुनवाई जस्टिस राकेश मोहन पांडेय के सिंगल बेंच में हुई। मामले की सुनवाई के बाद जस्टिस पांडेय ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अनुकंपा नियुक्ति के संबंध में उत्तराधिकार प्रमाण पत्र की बाध्यता नहीं है। इस तरह का प्रमाण पत्र मांगा जाना विधि के विपरीत है। पुलिस विभाग द्वारा याचिकाकर्ता को उत्तराधिकार प्रमाण पत्र मांगे जाने संबंधी आदेश को रद्द करते हुए डीजीपी व बिलासपुर एसपी को याचिकाकर्ता को अनुकंपा नियुक्ति देने विभागीय प्रक्रिया का पालन करने का निर्देश दिया है।

ये भी पढ़े…

जाति प्रमाण पत्र विवाद: छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने जाति छानबीन समिति के आदेश को किया रद

जाति प्रमाण पत्र की वैधता और जाति छानबीन समिति के कार्य और अधिकार को लेकर छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट में महत्वपूर्ण फैसला सुनाया है। उच्च स्तरीय जाति छानबीन समिति के आदेश को रद करते हुए सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों के तहत याचिकाकर्ता के जाति प्रमाण पत्र को आदेश की प्राप्ति के छह महीने के भीतर सत्यापित करने का आदेश उच्च स्तरीय जाति छानबीन समिति को दिया है। कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की है कि जाति जांच समिति को एक अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण के रूप में कार्य करना होता है, जिसके लिए न केवल प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक होता है, बल्कि इसके द्वारा एकत्रित प्रत्येक सामग्री को उस व्यक्ति के समक्ष प्रकट करना भी आवश्यक होता है, जिसके विरुद्ध जांच की जा रही है।

याचिकाकर्ता लक्ष्मी नारायण महतो ने उच्चाधिकार प्राप्त जाति छानबीन समिति (इसके बाद से समिति) द्वारा 9 जनवरी 2015 को पारित आदेश पर प्रश्न उठाया है, जिसके द्वारा याचिकाकर्ता के पक्ष में संभागीय संगठक, रायपुर द्वारा 6 फरवरी 1982 को जारी जाति प्रमाण पत्र को यह कहते हुए रद कर दिया गया है कि याचिकाकर्ता ने गड़रिया जाति, जो अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) से संबंधित है, उससे संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत करके अनुसूचित जनजाति (एसटी) का उक्त जाति प्रमाण पत्र प्राप्त किया था और नियुक्ति प्राप्त की थी।

क्या है मामला

याचिकाकर्ता लक्ष्मी नारायण महतो वर्ष 1983 में डाक विभाग में डाक सहायक के पद पर नियुक्त हुआ और उसके बाद निरीक्षक के पद पर पदोन्नत हुआ। याचिकाकर्ता के अनुसार वह धनगढ़ जाति का है, जो विधिवत अनुसूचित जनजाति के रूप में अधिसूचित है।उसके पक्ष में 6 फरवरी 1982 को जाति प्रमाण पत्र जारी किया गया था। सेवा अवधि के दौरान, उसे विभाग द्वारा विधिवत सत्यापित जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने के लिए कहा गया था। उक्त निर्देश के पालन में उसने एक अगस्त 1992 को तहसीलदार महासमुंद से जाति प्रमाण पत्र प्राप्त किया। इस बीच उसकी जाति के संबंध में कुछ लोगों ने शिकायतें की। इसी आधार पर विभाग ने कलेक्टर से प्रतिवेदन मांगा। विस्तृत जांच करने के बाद, याचिकाकर्ता की जाति, जो एसटी की श्रेणी में आती है, उनको सत्यापित करते हुए कार्यालय कलेक्टर (आदिम जाति कल्याण) रायपुर द्वारा 11 मार्च 1999 को प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया। यहां तक कि पुलिस अधीक्षक के समक्ष की गई कार्यवाही भी यह पाते हुए कि याचिकाकर्ता ने जाति प्रमाण पत्र प्रस्तुत करने में कोई अपराध नहीं किया है, मामला खारिज कर दिया गया। इस बीच डाक विभाग के मुख्य अधीक्षक ने याचिकाकर्ता के जाति सत्यापन के संबंध में कलेक्टर कार्यालय को प्रतिवेदन भेजा था। अतिरिक्त कलेक्टर ने कहा कि याचिकाकर्ता का जाति प्रमाण पत्र असली है। याचिकाकर्ता ने बताया कि धनकर/धनगढ़ जाति छत्तीसगढ़ राज्य में एसटी की श्रेणी के तहत विधिवत अधिसूचित है और इसमें धनगढ़/गढरिया भी शामिल है, जिस पर छत्तीसगढ़ राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग ने विधिवत विचार किया है। सरकार द्वारा अधिसूचित ‘धनगढ़’ शब्द के भीतर इसे शामिल करने की सिफारिश की है।

हाई कोर्ट का आदेश

मामले की सुनवाई जस्टिस बीडी गुरु की सिंगल बेंच में हुई। सुनवाई के बाद कोर्ट ने याचिकाकर्ता के याचिका को स्वीकार करते हुए उच्च स्तरीय जाति छानबीन समिति के फैसले को रद करते हुए समिति को निर्देशित किया है कि, याचिकाकर्ता के जाति प्रमाण पत्र को सर्वोच्च न्यायालय के दिशा निर्देशों और अधिनियम, 2013 और नियम, 2013 के अनुसार इस आदेश की प्रति प्राप्त होने की तारीख से छह महीने की अवधि के भीतर सत्यापित करें।

Related Articles

Latest Articles